रवींद्र पांडेय
रंगलाल उच्च विद्यालय। हम शान से रंगदार उच्च विद्यालय कहते थे। करीब 32 साल पहले हम यहां हर रोज (छुटि्टयों के दिन छोड़कर) आया करते थे। आना पड़ता था। नहीं आने पर हर रोज दस पैसे के हिसाब से दंड देना पड़ता था। घर में मार पड़ती थी सो अलग। टिफिन के बाद भागने पर 25 पैसे देने पड़ते थे। सो हम टिफिन के बाद भी जमे रहते थे। पर सिर्फ 25 पैसे बचाने के लिए नहीं। बल्कि इसलिए कि आखिरी घंटी में हेडमास्टर साहब हिंदी पढ़ाते थे। वाह, क्या अंदाज था पढ़ाने का। बहुत मजा आता। लगता कि आज छुट्टी की घंटी नहीं बजती, तो ही अच्छा रहता था। पर घंटी समय पर बज ही जाती थी। सब कुछ समय पर होता था। प्रार्थना से लेकर छुट्टी तक। समय का पाबंद होना हमने यहीं से सीखा।
मैं और मेरे चचेरे बड़े भाई बीरेंद्र पांडेय इसी स्कूल से मैट्रिक पास हुए। 1984 में। करीब 30 साल हो गए। पर आज भी स्कूल की बहुत याद आती है। लेकिन इन यादों में बहुत कुछ भूल जाने का अफसोस भी है। कितना कठिन है यह कहना कि जिन शिक्षकों से बहुत कुछ सीखकर हम अपने जीवन में कुछ बन पाए, उनके नाम भी हमें याद नहीं। हमारे सभी शिक्षक बहुत अच्छे रहे। अपने बच्चों की तरह हमें प्यार करते। और बदमाशियां करने पर पूरे हक से हमारी पीठ पर खजूर की छड़ियां भी तोड़ते। केमेस्ट्री वाले सर, बहुत डरते थे हम उनसे। दो उंगलियों के बीच पेन डालकर दबाने पर बहुत पीड़ा होती। उलटे हाथ पर छड़ी खाने से अच्छा था कि हम रात में जगकर अपना पाठ याद कर लें। संस्कृत वाले पाठक सर। बहुत कड़ाई करते। हर बच्चे से किताब-किताब पूछते। उनके आगे वाले दांत पत्थर के थे। जो बोलते समय हिलते रहते थे। लगता कि दांत बाहर आ जाएंगे। पर पाठक सर जीभ से दांतों को काबू में रखते थे। जो बच्चे किताब लेकर स्कूल नहीं आते उन्हें पूरे पीरियड खड़ा करा देते। फागू बाबू का नाम याद है। अंग्रेजी पढ़ाते थे। स्कूल के सामने ही खपड़ैल मकान में रहते थे। उनके साथ समय बिताना हमें बहुत अच्छा लगता था।
गोपी बाबू की भी बहुत याद आती है। मैथ पढ़ाते थे। दसवीं में हमारे वर्ग शिक्षक भी थे। मैं तो उनका पक्का शिष्य था। मुनीटर जो था अपनी क्लास का। रजिस्टर लाना। फीस की रसीद काटने में उनकी मदद करना। ब्लैक बोर्ड साफ करना। कई काम थे हमारे जिम्मे। बहुत मन लगता था, इन सब कामों में। पढ़ाई के अलावा अन्य गतिविधियों में भी मैं बढ़-चढ़कर हिस्सा लेता। सरस्वती पूजा हो या पंद्रह अगस्त या छब्बीस जनवरी। हर मौके पर आगे रहता। हमें याद आता था, तब जगन्नाथ मिश्र बिहार के मुख्यमंत्री थे। वे किसी फंक्शन में शेरघाटी आए थे। स्कूल के पास ही उनका काफिला गुजर रहा था, तो हम बच्चों ने उन्हें रोककर माला पहनायी थी।
स्कूल की यादें बहुत सारी हैं। बहुत सारे संदर्भ और तथ्य कायदे से याद भी नहीं हैं। पर शेरघाटी की मोरहर और बुढ़िया नदियों के तटों पर बहने वाली हवाओं ने मेरी रगों में एक सृजनात्मक ऊर्जा का प्रवाह कर दिया है। लिखने बैठा हूं, तो गुरुजनों के आशीष से पूरी किताब लिख दूंगा। कुछ याद न हो, तब भी कल्पना की उड़ान लंबी हो जाएगी। पर आपके समय और स्मारिका की शब्द सीमा का ख्याल रखना भी जरूरी है। बड़े भाई शहरोज जी से पता चला कि हमारा रंगदार उच्च विद्यालय सौ साल पूरे कर रहा है। इस मौके पर अपने प्यारे विद्यालय को याद करते हुए मैं बहुत गौरव महसूस कर रहा हूं। मैं हृदय से पूरे विद्यालय परिवार को बधाई देता हूं। गुरुजनों से आशीर्वाद चाहता हूं।
( रंग लाल हाई स्कूल के साल पूरे होने पर प्रकाशित स्मारिका में )
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