कौन कहता है आसमान में सुराख़ नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो!
और मुंगेश्वर भुईयां तथा उसके बेटे विजय मांझी ने दुष्यंत की इन पंक्तियों को आखिर चरितार्थ कर दिखाया.शेरघाटी से महज़ १० किलो मीटर के फासले पर है बांकेबाजार, यहीं के गाँव टंडवा के हैं कथित महादलित जाति के मुंगेश्वर भुईयां.न एक धुर जमीन और रहने के लिए मात्र फुस की झोपड़ी.रोज़ी-रोटी के लिए ठेला चलाते हैं.कहा जाता है कि कठिन परिश्रम एवं पक्का इरादा निसंदेह कायाबी की निशानी है.ये साकार हुआ,उन्होंने ठेला चलाकर परिवार का परवरिश करते हुए बच्चों को पढ़ाया।
एक अखबारनवीस से बतियाते हुए मुंगेश्वर भुईयां कहते हैं कि 15 वर्ष की उम्र में उनकी शादी हो गयी और उन्हें परिवार से अलग कर दिया गया था। अलग होने के बाद परिवार का बोझ बढ़ा। खेती तो थी नहीं, रहने के लिए प्रखंड मुख्यालय के सामने झोपड़ी। सवा सेर कच्ची चावल पर रोरोडीह के एक किसान के घर बंधुआ मजदूरी किया करता था। बाल बच्चे हुए तो सवा सेर चावल से परिवार का भूख नहीं मिटने की स्थिति में बंधुआगिरी छोड़कर तीन रुपये जमा पर 1989-90 से ठेला चलाना शुरू किया तथा बच्चों में एक बेटी की शादी किया। अपनी बुरी स्थिति में भी मुंगेश्वर ने पक्का इरादा बनाया कि बेटा को जरूर पढ़ाएंगे । ये बताते हैं कि ठेला चलाते हुए बेटी के बाद बेटा विजय मांझी को नेकीपन स्कूल में फिर गया कालेज में नामाकरण कराया। बेटे ने भी इनके सपने को सच करने के लिए खूब मेहनत की. आज वह मास्टर बनकर नवीनगर में अपनी जिम्मेदारी संभाल रहा है।
मुंगेश्वर मांझी को आज भी अपने बेटे को मिलने वाला पगार की जानकारी नहीं है। लेकिन इतना जरूर जानता है कि दस हजार से उपर वेतन मिलता होगा।
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